बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

कुछ लोग तो यहां भी डूब गए सागर के किनारों में ।।

कुछ तो दखल रखा ही जाए सूबे की सरकारों में ।
फितरत सवार हो गई है इस शहर के साहूकारों में।। 

वो पैसों के दम पर ही रहे सुर्खियों में अखबारों में।
राजदरबारी ही निकले वो जो रहे यहां फनकारों में।।

गाय मुंह मारती है सडक़ पर कुत्ते घूमते है कारों में।
शामिल हो गया अब यह भी मौलिक अधिकारों में ।।

वोट की आड़ में न हो सरकारी नौकरी का जुगाड़ ।
आत्मसम्मान तब तक जिंदा रहता है बेरोजगारों में।।

जिंदगी में कभी भी अचानक कुछ नहीं होता दोस्त।
नींव का कसूर ही अक्सर नजर आता है दीवारों में।।

कोई ओर थे जिनको था तूफां से टकराने का हुनर।
कुछ लोग तो यहां भी डूब गए सागर के किनारों में ।।

टेड़ापन भी जरूरी है हकीकत की जिंदगी के लिए।
भला कौन बच पाया है जंगल भी सीधे देवदारों में ।।

वो ही दीवा जलाते हैं अपने पुरखों की मजारों पर।
वो जो शामिल ही नहीं रहे जीवन के संस्कारों में।।

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